Tuesday 24 March 2015

श्री हनुमान चालीसा

श्री हनुमान चालीसा

श्री गुरु चरण सरोज रज,निज मन मुकुरु सुधारि।
बरनऊँ रघुवर बिमल जसु,जो दायकु फल चारि।
बुद्धिहीन तनु जानिके,सुमिरो पवन-कुमार।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं,हरहु कलेश विकार।

जय हनुमान ज्ञान गुण सागर।
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥1॥
राम दूत अतुलित बलधामा।
अंजनी पुत्र पवन सुत नामा॥2॥
महावीर विक्रम बजरंगी।
कुमति निवार सुमति के संगी॥3॥
कंचन बरन बिराज सुबेसा।
कानन कुण्डल कुंचित केसा॥4॥
हाथ ब्रज और ध्वजा विराजे।
काँधे मूँज जनेऊसाजै॥5॥
शंकर सुवन केसरी नंदन।
तेज प्रताप महा जग वंदन॥6॥
विद्यावान गुणी अति चातुर।
राम काज करिबे को आतुर॥7॥
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।
राम लखन सीता मन बसिया॥8॥
सूक्ष्म रुप धरि सियहिं दिखावा।
बिकट रुप धरि लंक जरावा॥9॥
भीम रुप धरि असुर संहारे।
रामचन्द्र के काज संवारे॥10॥
लाय सजीवन लखन जियाये।
श्री रघुवीर हरषि उर लाये॥11॥
रघुपति कीन्हीं बहुत बड़ाई।
तुम मम प्रिय भरत सम भाई॥12॥
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।
अस कहि श्री पति कंठ लगावैं॥13॥
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा।
नारद,सारद सहित अहीसा॥14॥
जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते।
कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते॥15॥
तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा।
राम मिलाय राजपद दीन्हा॥16॥
तुम्हरो मंत्र विभीषण माना।
लंकेस्वर भए सब जग जाना॥17॥
जुग सहस्त्र जोजन पर भानू।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥18॥
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहि।
जलधि लांघि गये अचरज नाहीं॥19॥
दुर्गम काज जगत के जेते।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥20॥
राम दुआरे तुम रखवारे।
होत न आज्ञा बिनु पैसा रे ॥21॥
सब सुख लहै तुम्हारी सरना।
तुम रक्षक काहू को डरना ॥22॥
आपन तेज सम्हारो आपै।
तीनों लोक हाँक ते काँपै॥23॥
भूत पिशाच निकट नहिं आवै।
महावीर जब नाम सुनावै॥24॥
नासै रोग हरै सब पीरा।
जपत निरंतर हनुमत बीरा ॥25॥
संकट तें हनुमान छुड़ावै।
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै॥26॥
सब पर राम तपस्वी राजा।
तिनके काज सकल तुम साजा॥27॥
और मनोरथ जो कोइ लावै।
सोई अमित जीवन फल पावै॥28॥
चारों जुग परताप तुम्हारा।
है परसिद्ध जगत उजियारा॥29॥
साधु सन्त के तुम रखवारे।
असुर निकंदन राम दुलारे॥30॥
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता।
अस बर दीन जानकी माता॥31॥
राम रसायन तुम्हरे पासा।
सदा रहो रघुपति के दासा॥32॥
तुम्हरे भजन राम को पावै।
जनम जनम के दुख बिसरावै॥33॥
अन्त काल रघुबर पुर जाई।
जहाँ जन्म हरि भक्त कहाई॥34॥
और देवता चित न धरई।
हनुमत सेई सर्व सुख करई॥35॥
संकट कटै मिटै सब पीरा।
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥36॥
जय जय जय हनुमान गोसाईं।
कृपा करहु गुरु देव की नाई॥37॥
जो सत बार पाठ कर कोई।
छुटहि बँदि महा सुख होई॥38॥
जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।
होय सिद्धि साखी गौरीसा॥39॥
तुलसीदास सदा हरि चेरा।
कीजै नाथ हृदय मँह डेरा॥40॥

पवन तनय संकट हरन,मंगल मूरति रुप।
राम लखन सीता सहित,हृदय बसहु सुरभुप॥

Sunday 22 March 2015

शिव तांडव स्तोत्रम्

॥शिव तांडव स्तोत्रम् ॥

जटाटवी-गलज्जल-प्रवाह-पावित-स्थले गलेऽव-लम्ब्य-लम्बितां-भुजङ्ग-तुङ्ग-मालिकाम् डमड्डमड्डमड्डम-न्निनादव-ड्डमर्वयं चकार-चण्ड्ताण्डवं-तनोतु-नः शिवः शिवम् ॥१॥

[जिन शिव जी की सघन जटारूप वन से प्रवाहित हो गंगा जी की धारायं उनके कंठ को प्रक्षालित क होती हैं, जिनके गले में बडे एवं लम्बे सर्पों की मालाएं लटक रहीं हैं, तथा जो शिव जी डम-डम डमरू बजा कर प्रचण्ड ताण्डव करते हैं, वे शिवजी हमारा कल्यान करें।]
जटा-कटा-हसं-भ्रमभ्रमन्नि-लिम्प-निर्झरी- -विलोलवी-चिवल्लरी-विराजमान-मूर्धनि . धगद्धगद्धग-ज्ज्वल-ल्ललाट-पट्ट-पावके किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम॥२॥

[जिन शिव जी के जटाओं में अतिवेग से विलास पुर्वक भ्रमण कर रही देवी गंगा की लहरे उनके शिश पर लहरा रहीं हैं, जिनके मस्तक पर अग्नि की प्रचण्ड ज्वालायें धधक-धधक करके प्रज्वलित हो रहीं हैं, उन बाल चंद्रमा से विभूषित शिवजी में मेरा अंनुराग प्रतिक्षण बढता रहे।]

धरा-धरेन्द्र-नंदिनीविलास-बन्धु-बन्धुर स्फुर-द्दिगन्त-सन्ततिप्रमोद-मान-मानसे . कृपा-कटाक्ष-धोरणी-निरुद्ध-दुर्धरापदि क्वचि-द्दिगम्बरे-मनो विनोदमेतु वस्तुनि॥३॥

[जो पर्वतराजसुता(पार्वती जी) के विलासमय रमणिय कटाक्षों में परम आनन्दित चित्त रहते हैं, जिनके मस्तक में सम्पूर्ण सृष्टि एवं प्राणीगण वास करते हैं, तथा जिनके कृपादृष्टि मात्र से भक्तों की समस्त विपत्तियां दूर हो जाती हैं, ऐसे दिगम्बर (आकाश को वस्त्र सामान धारण करने वाले) शिवजी की आराधना से मेरा चित्त सर्वदा आन्दित रहे।]

जटा-भुजङ्ग-पिङ्गल-स्फुरत्फणा-मणिप्रभा कदम्ब-कुङ्कुम-द्रवप्रलिप्त-दिग्व-धूमुखे मदान्ध-सिन्धुर-स्फुरत्त्व-गुत्तरी-यमे-दुरे मनो विनोदमद्भुतं-बिभर्तु-भूतभर्तरि॥४॥

[मैं उन शिवजी की भक्ति में आन्दित रहूँ जो सभी प्राणियों की के आधार एवं रक्षक हैं, जिनके जाटाओं में लिपटे सर्पों के फण की मणियों के प्रकाश पीले वर्ण प्रभा-समुहरूपकेसर के कातिं से दिशाओं को प्रकाशित करते हैं और जो गजचर्म से विभुषित हैं।]

सहस्रलोचनप्रभृत्य-शेष-लेख-शेखर प्रसून-धूलि-धोरणी-विधू-सराङ्घ्रि-पीठभूः भुजङ्गराज-मालया-निबद्ध-जाटजूटक: श्रियै-चिराय-जायतां चकोर-बन्धु-शेखरः॥५॥

[जिन शिव जी का चरण इन्द्र-विष्णु आदि देवताओं के मस्तक के पुष्पों के धूल से रंजित हैं (जिन्हे देवतागण अपने सर के पुष्प अर्पन करते हैं), जिनकी जटा पर लाल सर्प विराजमान है, वो चन्द्रशेखर हमें चिरकाल के लिए सम्पदा दें।]

ललाट-चत्वर-ज्वलद्धनञ्जय-स्फुलिङ्गभा- निपीत-पञ्च-सायकं-नमन्नि-लिम्प-नायकम् सुधा-मयूख-लेखया-विराजमान-शेखरं महाकपालि-सम्पदे-शिरो-जटाल-मस्तुनः॥६॥

[जिन शिव जी ने इन्द्रादि देवताओं का गर्व दहन करते हुए, कामदेव को अपने विशाल मस्तक की अग्नि ज्वाला से भस्म कर दिया, तथा जो सभि देवों द्वारा पुज्य हैं, तथा चन्द्रमा और गंगा द्वारा सुशोभित हैं, वे मुझे सिद्दी प्रदान करें।]

कराल-भाल-पट्टिका-धगद्धगद्धग-ज्ज्वल द्धनञ्ज-याहुतीकृत-प्रचण्डपञ्च-सायके धरा-धरेन्द्र-नन्दिनी-कुचाग्रचित्र-पत्रक -प्रकल्प-नैकशिल्पिनि-त्रिलोचने-रतिर्मम॥७॥

[जिनके मस्तक से धक-धक करती प्रचण्ड ज्वाला ने कामदेव को भस्म कर दिया तथा जो शिव पार्वती जी के स्तन के अग्र भाग पर चित्रकारी करने में अति चतुर है ( यहाँ पार्वती प्रकृति हैं, तथा चित्रकारी सृजन है), उन शिव जी में मेरी प्रीति अटल हो।]

नवीन-मेघ-मण्डली-निरुद्ध-दुर्धर-स्फुरत् कुहू-निशी-थिनी-तमः प्रबन्ध-बद्ध-कन्धरः निलिम्प-निर्झरी-धरस्त-नोतु कृत्ति-सिन्धुरः कला-निधान-बन्धुरः श्रियं जगद्धुरंधरः॥८॥

[जिनका कण्ठ नवीन मेंघों की घटाओं से परिपूर्ण आमवस्या की रात्रि के सामान काला है, जो कि गज-चर्म, गंगा एवं बाल-चन्द्र द्वारा शोभायमान हैं तथा जो कि जगत का बोझ धारण करने वाले हैं, वे शिव जी हमे सभि प्रकार की सम्पनता प्रदान करें।]

प्रफुल्ल-नीलपङ्कज-प्रपञ्च-कालिमप्रभा- -वलम्बि-कण्ठ-कन्दली-रुचिप्रबद्ध-कन्धरम् . स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकछिदं तमंतक-च्छिदं भजे॥९॥

[जिनका कण्ठ और कन्धा पूर्ण खिले हुए नीलकमल की फैली हुई सुन्दर श्याम प्रभा से विभुषित है, जो कामदेव और त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दु:खो6 के काटने वाले, दक्षयज्ञ विनाशक, गजासुर एवं अन्धकासुर के संहारक हैं तथा जो मृत्यू को वश में करने वाले हैं, मैं उन शिव जी को भजता हूं।]

अखर्वसर्व-मङ्ग-लाकला-कदंबमञ्जरी रस-प्रवाह-माधुरी विजृंभणा-मधुव्रतम् . स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्त-कान्ध-कान्तकं तमन्तकान्तकं भजे॥१०॥

[जो कल्यानमय, अविनाशि, समस्त कलाओं के रस का अस्वादन करने वाले हैं, जो कामदेव को भस्म करने वाले हैं, त्रिपुरासुर, गजासुर, अन्धकासुर के सहांरक, दक्षयज्ञविध्वसंक तथा स्वयं यमराज के लिए भी यमस्वरूप हैं, मैं उन शिव जी को भजता हूँ।]

जयत्व-दभ्र-विभ्र-म-भ्रमद्भुजङ्ग-मश्वस- द्विनिर्गमत्क्रम-स्फुरत्कराल-भाल-हव्यवाट् धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्ग-तुङ्ग-मङ्गल ध्वनि-क्रम-प्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः॥११॥

[अतयंत वेग से भ्रमण कर रहे सर्पों के फूफकार से क्रमश: ललाट में बढी हूई प्रचंण अग्नि के मध्य मृदंग की मंगलकारी उच्च धिम-धिम की ध्वनि के साथ ताण्डव नृत्य में लीन शिव जी सर्व प्रकार सुशोभित हो रहे हैं।]

दृष-द्विचित्र-तल्पयोर्भुजङ्ग-मौक्ति-कस्रजोर् -गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्वि-पक्षपक्षयोः . तृष्णार-विन्द-चक्षुषोः प्रजा-मही-महेन्द्रयोः समप्रवृतिकः कदा सदाशिवं भजे॥१२॥

[कठोर पत्थर एवं कोमल शय्या, सर्प एवं मोतियों की मालाओं, बहुमूल्य रत्न एवं मिट्टी के टूकडों, शत्रू एवं मित्रों, राजाओं तथा प्रजाओं, तिनकों तथा कमलों पर सामान दृष्टि रखने वाले शिव को मैं भजता हूँ।]

कदा निलिम्प-निर्झरीनिकुञ्ज-कोटरे वसन् विमुक्त-दुर्मतिः सदा शिरःस्थ-मञ्जलिं वहन् . विमुक्त-लोल-लोचनो ललाम-भाललग्नकः शिवेति मंत्र-मुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥१३॥

[कब मैं गंगा जी के कछारगुञ में निवास करता हुआ, निष्कपट हो, सिर पर अंजली धारण कर चंचल नेत्रों तथा ललाट वाले शिव जी का मंत्रोच्चार करते हुए अक्षय सुख को प्राप्त करूंगा।]

निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका- निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः । तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥१४॥
प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना । विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌॥१५॥
इदम् हि नित्य-मेव-मुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धि-मेति-संततम् . हरे गुरौ सुभक्तिमा शुयातिना न्यथा गतिं विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम्॥१६॥

[इस उत्त्मोत्त्म शिव ताण्डव स्त्रोत को नित्य पढने या श्रवण करने मात्र से प्राणि पवित्र हो, परंगुरू शिव में स्थापित हो जाता है तथा सभी प्रकार के भ्रमों से मुक्त हो जाता है।]

पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं यः शंभुपूजनपरं पठति प्रदोषे . तस्य स्थिरां रथ गजेन्द्र तुरङ्ग युक्तां लक्ष्मीं सदैवसुमुखिं प्रददाति शंभुः॥१७॥

[प्रात: शिवपुजन के अंत में इस रावणकृत शिवताण्डवस्तोत्र के गान से लक्ष्मी स्थिर रहती हैं तथा भक्त रथ, गज, घोडा आदि सम्पदा से सर्वदा युक्त रहता है।]
॥इति श्रीरावण-कृतम् शिव-ताण्डव-स्तोत्रम्       सम्पूर्णम्॥

Sunday 1 March 2015

Sri Ram stuti

श्री राम चंद्र कृपालु भजमन हरण भव भय दारुणम् | नव कंज लोचन कंज मुख कर कंज पद कंजारुणम् || कंदर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरज सुन्दरम् | पट पीत मानहु तड़ित रूचि शुचि नौमि जनक सुतावरम् || भज दीन बन्धु दिनेश दानव दैत्य वंश निकंदनम् | रघुनंद आनंद कंद कौशल चंद दशरथ नन्दनम् || सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणम् | आजानु भुज शर चाप धर संग्राम जित खर - दूषणम् || इति वदति तुलसीदास शंकर शेष मुनि मन रंजनम् | मम हृदय कंज निवास कुरु कामादि खल दल गंजनम् ll

Dvadash jyotirling stotram

द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्। उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम्॥1॥ परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्।:सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥2॥ वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।:हिमालये तु केदारं घृष्णेशं च शिवालये॥3॥ एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रात: पठेन्नर:।:सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥4॥