Saturday 4 June 2016

ग्रीष्म

जेठ की दोपहरी में सूरज जब चर्म सीमा पर चमके,
धरती भी होकर गरम जैसे लाल अंगार-सी दहके।
     गर्म-गर्म लूओं से प्राणी सब झुलसने लगे,
     हो जाते बेहाल कण्ठ बार-बार सूखने लगे।
पानी की तलाश में वन्य-जीव गाँवों की ओर आने लगे,
भीष्ण गरमी से कुए-पोखरे भी अब सूखने लगे।
    पेड़ों से टकराकर सांय-सांय की आवाज करती,
    धूल भरी आंधियां  दिन और रात  चलती।
सबको सूखाती हुई रुकने का नाम नहीं लेती है,
जिधर देखो उधर बस धूल ही धूल दिखाई देती है।
    हो चुके निराश सबके चेहरे चिन्ताग्रत है,
    जीव-जन्तु, प्राणी मात्र सब प्यास से त्रस्त है।
    मेघ तलाशती निगाहें बार-बार उपर उठती,
    उदास होकर फिर एक-दूसरे का मुंह तकती।
    बड़े बुजुर्ग सब इन्द्र देव को मनाने लगे,
अब तो बरसो भगवन्! प्राणी त्राहि-त्राहि करने लगे।

-- Umrav Jan Sikar

Wednesday 23 December 2015

किश्ती

                      " किश्ती "

जिस शाख पर हम बैठे, वो शाख वहीं से टूट गई।
अपने ही हाथों दुनिया हमारी लुट गई।
तकदीर का अफसाना, ऐसा है ये अपना,
ऐसी राह चुनी थी हमने कि मंजिल ही पीछे छूट गई।
यकीन किया था उन पर, जो अपने करीब थे,
उन बेरहमों के कारण किस्मत ही हमसे रूठ गई।
पग-पग पर गिरे हम, ठोकरें खाई है इतनी,
संभलने से पहले ही रंगत जवानी की लुट गई।
जिंदगी के इस जुए में, जिन्दगी लगी है दांव पर,
होश आया तो दिल में कंपकंपी-सी छूट गई।
ऐ दिले-नादान! अब हम क्या करे?
जिस किश्ती में हम सवार है, वही किश्ती टूट गई।

-- Umrav Jan Sikar

कटी पतंग

सोचे थे ख्वाब , जाना था उस ओर।
तुफानों से घिर कर आ गये किस ओर॥
भंवर में फंसे ऐसे कि दिखाई नहीं देता छोर।
कब सोचा था मैंने, यों फिसल जाएगी डोर॥
हालातों के दंश ने, राहों को इस तरह मोड़ा।
कि बरबाद हुए ऐसे,  कहीं का नहीं छोड़ा॥
तूफान तो चला गया, डोर पतंग की काट के।
जीवन के इस मेले में,  हम घर के रहे ना घाट के॥
हुए कटी पतंग की तरह, न राह रही न मंजिल।
बेरंग से इस जीवन में,  तन्हाइयां हुई है शामिल॥

-- Umrav Jan Sikar

Sunday 20 December 2015

अन्धेरी रात

बरसों बीत गये इस इन्तजार में
कि ये अन्धेरी रात गुजर जाएगी।
लालिमा बिखेरती सुबह की किरण,
जीवन में नया संचार लाएगी।
बस यही आस लिए उदास मन को
सांत्वना देता रहा कि
पतझड़ के बाद ...
बसन्त की बहार आएगी।
वीरान हुए इस चमन में
फूल खिलेंगे फिर से,
सूनी सी इन आंखों में
सतरंगी रौनक आएगी।
क्यों थक चुका हूँ इतना कि
तन साथ नहीं देता मेरा,
लगता है ये काली रात
अब गुजर नहीं पायेगी।
क्यों उखड़ने लगी है सांसे मेरी,
ऐ मेरे दिल !
क्या डोरी इन सांसों की टूट जाएगी।
सो चुका था जमीर मेरा
बरसों बीत गये,
लगता है जैसे अब बारी मेरी आएगी।
गम है इतना कि जहां में ...
'कोई' मेरा हो न सका,
ये आरजू मेरे मन की
मन में ही रह जाएगी...!!

   ✒ Umrav Jan Sikar

Friday 4 December 2015

घातक निर्णय

                   " घातक निर्णय "

कई दिनों से मेरा एक दोस्त काफी उदास था,
उसके हाव-भाव और व्यवहार में कुछ बदलाव था।
मैंने उसे पुछा भी लेकिन उसने बताया नहीं,
निजी मामला समझ मैंने भी दबाब बनाया नहीं।
दो रोज बाद मुझसे बोला --
यार एक काम में मेरा थोड़ा सा हाथ बंटावो,
एक मेहमान के लिए किसी होटल में कमरा दिलावो।
मैंने एक परिचित की मदद से
स्टेशन के पास एक कमरा बुक कराया,
शाम हो रही थी इसलिये
दोस्त को वहीं छोड़ मैं वापस चला आया।
देर रात को मोबाइल की घण्टी ने मुझे जगाया,
फोन मेरे दोस्त के घर से आया।
उधर से जो बताया गया, सुनकर मैं भी घबराया,
गांव से एक लड़की भाग गई,
भगाने का काम मेरे दोस्त का बताया।
मुझे लगा कि मेहमान कोई और नहीं
'वो लड़की ही है' मैं मन ही मन बुदबुदाया,
मैं तुरंत उस होटल में आया।
दस्तक देकर दरवाजा खुलवाया
दरवाजा उसी लड़की ने खोला,
दोस्त को नशे में झूमता हुआ पाया।
यह तो कभी शराब पीता ही नहीं था,
आज कैसे पी ली?
बोली - बस यही कमी रह गई थी,
जो आज पूरी कर ली।
मैं उसके पास गया तो बगल में
एक तह किया कागज रखा हुआ था
मैंने उसे उठाकर पढ़ा तो कांप उठा,
दोनों का यह सुसाइड नोट लिखा हुआ था।
इसने शराब ही ली है या जहर वगैरह खाया है,
वह बोली - नहीं, केवल शराब पीकर ही आया है।
मैंने उस नोट को लहराकर कहा -
तुम जो करने जा रहे हो, इस बारे में कुछ सोचा है,
वह मायूस होकर बोली अब सोचने में क्या रखा है।
हम जीते जी मिल नहीं सकते,
और शादी कर नहीं सकते।
किसी किम्मत पर साथ नहीं छोड़ेंगे,
ऐसे नहीं तो फिर मर कर मिलेंगे।
मैंने पूछा यह तो पुख्ता है कि
तुम मर कर मिल लोगे,
अगर मिल भी गये तो,
तुम क्या प्यार कर सकोगे।
'मर कर मिल लोगे' यह तो तुमने सोच लिया,
पर हकीकत इससे जुदा है - मैंने तर्क दिया।
रिश्ते, नाते  और दोस्त, दुश्मन
ये सब शरीर के ही सम्बन्ध है,
देखना, सुनना और बोलना, चलना
ये भी इस शरीर के ही प्रबन्ध है।
जब आत्मा शरीर से निकल जाती है
तो वह कुछ भी देख नहीं पाती है,
न वह आवाज लगा सकती है,
न ही कोई आवाज सुन पाती है।
उनके पास देखने, सुनने, बोलने का
कोई साधन नहीं होता है,
शरीर के बिना आत्मा को
कुछ भी अनुभव नहीं होता है।
लिंग भेद भी शरीर का होता है
आत्मा का कोई लिंग नहीं होता,
न मादा होती है, न नर होता है।
अभी तुम आजादी का रोना रोते हो
फिर अपनी बेबसी पर रोना,
बहुत मंहगा पड़ेगा तुम्हे
इस अनमोल शरीर को खोना।
क्या तुम सच कह रहे हो?
वह बोली या मुझे डरा रहे हो।
मैं बोला - हां, सच्चाई तो यही है,
मौत के बाद अन्धकार के सिवा कुछ नहीं है
बोली क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आता है
मैंने बताया जो जज्बातों में बहता है
उसकी बुद्धि का ज्ञान पुंज खत्म हो जाता है।
उस स्थिति में जो फैसला लिया जाता है
वह बहुत ही घातक होता है
जिसका परिणाम काफी भयानक हो जाता है।
तुमने शायद खाना नहीं खाया है
चलो, पहले खाना खा लेते है,
फिर तुम्हे क्या करना है
इस पर विचार करते है।
हमने नीचे आकर खाना खाया
साथ में गपशप भी हो गई,
इस दौरान वह भी ,
काफी हद तक सामान्य हो गई।
फिर मैंने उसे समझाया -
जिससे तुम शादी कर सकती नहीं,
यहां तक कि मिल भी सकती नहीं।
उस प्यार का क्या फायदा,
तुम्हे उस प्यार को छोड़ देना चाहिए,
अपने सुखद भविष्य के लिए
जज्बातों में बहना छोड़ देना चाहिए।
वह बोली - मैं तो मर ही जाऊंगी
उनके बिना जी नहीं पाऊंगी,
जिसके लिए धड़कता है दिल मेरा
उस प्यार को मैं कैसे भूल पाऊंगी।
मैंने कहा - अपने-आप को संभालो
आंखों पर मत भ्रम का पर्दा डालो,
तुम हवा में उड़ना छोड़ कर
हकीकत के धरातल पर नजर डालो।
वरना भविष्य में अन्धेरा छा जाएगा,
बरबादी के सिवा कुछ हाथ नहीं आएगा।
बोली मैं क्या करूं, आप ही बताओ,
अभी ट्रेन पकड़ कर घर चली जाओ।
ऐसे भी तेरा यहां रहना अच्छा नहीं है,
मौत का साया अभी पूरी तरह से हटा नहीं है।
अभी तो यह नशे में है,
लेकिन जब इसे होश आएगा।
फिर वही हालात बनेगा,
खुदकुशी का दबाव बन जाएगा।
मेरा कहना तुम सच मानो,
शरीर के महत्व को पहचानो।
बड़ा घृणित काम है इसे नष्ट करना,
प्रकृति का उपहार है, इसे सहेज कर रखना।
दुनिया में ऐसे कई लोग है जिनका,
सबकुछ लुट गया, भिखारी तक बन गये,
मगर फिर भी मरे नहीं,
जिन्दगी की खातिर हर दर्द सह गये।
मैं चली जाऊंगी पर इसका क्या होगा
उंगली से दोस्त की तरफ संकेत किया,
इसे संभाल लूंगा, मैं यहीं पर हूँ
इस तरह उसे आश्वस्त किया।
तेरे घर वाले काफी परेशान है
किसी बूथ पर जाकर उसे फोन करो,
फिर पहली गाड़ी पकड़ कर,
अपने घर प्रस्थान करो।
दुबारा कभी इससे मिलना मत
हो सके जितनी दूरी बनाओ,
घर वाले रिश्ता तय करे जिसके साथ
अपना प्यार समझ कर अपनाओ।
सुबह जब दोस्त को होश आया,
तो अपने-आपको अकेला पाया।
जब होटल वालों ने मेरे बारे में बताया,
तो चलकर सीधा मेरे पास आया।
उसे घर क्यों भेजा, इस बात पर
उसने काफी विवाद किया,
इन्सान मरने के लिए नहीं होता
मैंने भी उसका विरोध किया।
तुझे मरना था तो मर जाता
क्यों मरने के लिए उसे राजी किया,
इस मुद्दे पर हमारी दोस्ती टूटी
फिर हमने वह शहर भी छोड़ दिया।
समय के साथ-साथ मेरे स्मृति पटल पर
यह घटना धुंधली पड़ती गई,
मगर आज एक अप्रत्याशित घटना घटी
जो अतीत की घटना को जीवन्त कर गई।
बस में काफी भीड़ थी
मैं गैलरी में खड़ा रहने को मजबूर था,
रस्ते में कुछ सवारी उतरी, तब सीट मिली,
मेरा गांव अभी बहुत दूर था।
पहली पंक्ति की सीट से एक बच्ची आई
मेरे हाथ में एक कागज थमाया,
मैंने खोल कर देखा तो
पत्र में यह लिखा हुआ पाया।
"बहुत बहुत शुक्रिया
जो आपने मेरी जान बचाई,
उस दिन आपने ही मुझे
जीने की राह दिखाई।"
सौभाग्य से आज मिल ही गये
मेरा प्रणाम स्वीकार कीजिए,
पत्र लाने वाली मेरी बच्ची है
इसे अपना आशिर्वाद दीजिए।
मैंने अपना हाथ उसके सिर पर रखा
प्यार से बच्ची को दुलारने लगा,
मैं आश्चर्य से कभी खत को
तो कभी बच्ची को निहारने लगा।

   --  ✒ Umrav Jan Sikar

Sunday 15 November 2015

अजनबी

दो-चार कदम साथ क्या चल लिए,
वो अपना हमसफर ही समझ बैठे।
मेरी मन्द-मन्द मुस्कानों पर,
खुद को निछावर कर बैठे।
नियत दूरी के बाद होना था अलग
पता था, फिर भी दिल में बसा बैठे।
मेरी खनकती सुरीली आवाज को
कर्णप्रिय संगीत वो बना बैठे।
तिराहे पर आकर राह मेरी मुड़ गई
वो आँखों में आंसू छलका बैठे।
लड़खड़ाए कदम और गिर पड़े
इस कदर अपना होश गंवा बैठे।
"तुम ही मेरी मंजिल, हां तुम ही.."
बेहोशी में कुछ यों बुदबुदा बैठे।
खुद तड़पा और मुझको तड़पाया
अजनबी क्यों तुम दिल लगा बैठे..!

   -- Umrav Jan Sikar

Monday 9 November 2015

इस बार दिवाली पर आ जाओ

इस बार दीवाली पर आ जाओ,
तुम आओ तो कुछ सुकून मिले।
निगाहें तरस रही है बरसों से,
तुम आओ तो इन्हे ठण्डक मिले।

कभी गमों से राहत मिली नहीं
अब जीने की चाहत रही नहीं,
बस रुखसत होने से पहले
इक बार तो तुम्हारी झलक मिले।

खिलते फूलों की खुशबू ने,
फिर से मुझे झकझोर दिया,
है इन्तजार तुम्हारे आने का
आओ तो जीवन में महक घुले।

तुम इस बार मिटा दो ये दूरी
कुछ समझो मेरी भी मजबूरी,
निराशाओं के काले साये में
तुम आओ तो आशा का दीप जले।

-- Umrav Jan Sikar