जेठ की दोपहरी में सूरज जब चर्म सीमा पर चमके,
धरती भी होकर गरम जैसे लाल अंगार-सी दहके।
गर्म-गर्म लूओं से प्राणी सब झुलसने लगे,
हो जाते बेहाल कण्ठ बार-बार सूखने लगे।
पानी की तलाश में वन्य-जीव गाँवों की ओर आने लगे,
भीष्ण गरमी से कुए-पोखरे भी अब सूखने लगे।
पेड़ों से टकराकर सांय-सांय की आवाज करती,
धूल भरी आंधियां दिन और रात चलती।
सबको सूखाती हुई रुकने का नाम नहीं लेती है,
जिधर देखो उधर बस धूल ही धूल दिखाई देती है।
हो चुके निराश सबके चेहरे चिन्ताग्रत है,
जीव-जन्तु, प्राणी मात्र सब प्यास से त्रस्त है।
मेघ तलाशती निगाहें बार-बार उपर उठती,
उदास होकर फिर एक-दूसरे का मुंह तकती।
बड़े बुजुर्ग सब इन्द्र देव को मनाने लगे,
अब तो बरसो भगवन्! प्राणी त्राहि-त्राहि करने लगे।
-- Umrav Jan Sikar