Sunday 15 November 2015

अजनबी

दो-चार कदम साथ क्या चल लिए,
वो अपना हमसफर ही समझ बैठे।
मेरी मन्द-मन्द मुस्कानों पर,
खुद को निछावर कर बैठे।
नियत दूरी के बाद होना था अलग
पता था, फिर भी दिल में बसा बैठे।
मेरी खनकती सुरीली आवाज को
कर्णप्रिय संगीत वो बना बैठे।
तिराहे पर आकर राह मेरी मुड़ गई
वो आँखों में आंसू छलका बैठे।
लड़खड़ाए कदम और गिर पड़े
इस कदर अपना होश गंवा बैठे।
"तुम ही मेरी मंजिल, हां तुम ही.."
बेहोशी में कुछ यों बुदबुदा बैठे।
खुद तड़पा और मुझको तड़पाया
अजनबी क्यों तुम दिल लगा बैठे..!

   -- Umrav Jan Sikar

Monday 9 November 2015

इस बार दिवाली पर आ जाओ

इस बार दीवाली पर आ जाओ,
तुम आओ तो कुछ सुकून मिले।
निगाहें तरस रही है बरसों से,
तुम आओ तो इन्हे ठण्डक मिले।

कभी गमों से राहत मिली नहीं
अब जीने की चाहत रही नहीं,
बस रुखसत होने से पहले
इक बार तो तुम्हारी झलक मिले।

खिलते फूलों की खुशबू ने,
फिर से मुझे झकझोर दिया,
है इन्तजार तुम्हारे आने का
आओ तो जीवन में महक घुले।

तुम इस बार मिटा दो ये दूरी
कुछ समझो मेरी भी मजबूरी,
निराशाओं के काले साये में
तुम आओ तो आशा का दीप जले।

-- Umrav Jan Sikar