बदन है पसीने से तर-बतर
थकान भरा दिन का सफर
शाम को जब आता हूँ घर पर
असंतोष के भाव होते है चेहरे पर।
धीरे-धीरे रात की काली चादर गहराती है
सारी हलचलें खामोशी में तब्दील हो जाती है
कोई नजर नहीं आता,गलियां सूनी पड़ जाती है
जब नींद सबको स्वपन लोक की सैर कराती है।
मैं भी अपने दड़बे में चुपचाप लेट जाता हूँ
आँखें मूंदकर सोने का प्रयास करता हूँ
मन ही मन हालातों की पेचीदगी का आकलन करता हूँ
अंधकार में डूबे अपने भविष्य की फिक्र करता हूँ।
तब नींद रूठकर उल्टे पांव वापस चली जाती है
सन्नाटा तोड़ती धड़कन की आवाज कानों में टकराती है
चिन्ताएं साथ छोड़ती नहीं, परेशानियां कभी घटती नहीं
भयानक दानव की तरह मजबूरियां पीछे हटती नहीं।
-- उमराव सिंह राजपूत (Umrav Jan Sikar)
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