Friday 26 June 2015

जब से मेरे ख्यालों में आई हो तुम

कुछ अजीब सा महसूस करता हूँ,
जब से मेरे ख्यालों में आई हो तुम।
मन का पंछी अठखेलियां करे, उड़-उड़ के गगन में,
फूल खिलने लगे है फिर से उजड़े हुए गुलशन में ।
हवाओं में पहले ऐसी खनक नहीं थी,
दिल की नगरी में ऐसी कभी रौनक नहीं थी।
बसन्त आया हर साल, मगर ऐसी बहार नहीं थी,
कोयल की कूक में सुरीली पुकार नहीं थी।
पेड़ों से लिपटी झूल रही लताएं,
मधुर ध्वनि करती बह रही सरिताएं।
हर चीज में नवीनता का अहसास करता हूँ,
जब से मेरे ख्यालों में आई हो तुम।
कुछ अजीब सा महसूस करता हूँ,
जब से मेरे ख्यालों में आई हो तुम।

-- Umrav Jan Sikar

Monday 15 June 2015

खुशियाँ

खुशियां

मैं दोड़ता रहा हर तरफ
खुशियों की तलाश में,
लेकिन खुशियां कभी
हासिल हुई नहीं।
मैं हर बार पहुंचता
खुशियों के करीब,
पर पास जाते ही
खुशियां ओंझल होती गयी।
मेरी कल्पनाओं में खुशियां थी
स्वर्ग से सुख के समान,
वह मेरा भ्रम था।
मै देखता हूँ
कई दर्दों के नीचे
दबी हुई है हर खुशी।
अफसोस !
ज्यादा की उम्मीद में
मैं दूर होता गया
अपनी सीमित खुशियों से।
अब दिन रात एक किये बैठा हूँ
उन सीमित खुशियों को
पुन: हासिल करने के लिए।

-- उमराव सिंह राजपूत (Umrav Jan Sikar)

कितना अच्छा था वो दौर पागलपन का

वो दौर था पागलपन का
जब एक प्रेम-पुष्प
खिलकर दिल में महका
मुहब्बत को मैंने रब समझा।
अब समझदारी के दौर में
दिल की कोमलता मिट गई
भावनाओं की कद्र घट गई
स्वार्थपरता बढती गई
खुदगर्जी के ताने बुनता रहा
रिश्तों के धागे चटकते गये
उस दौर में जो हासिल हुआ
टूटकर सब बिखरते गये
तब थी मुहब्बत रब जैसी,
अब पैसा रब बन गया
हां मैं समझदार बन गया।
कितना अच्छा था
वो दौर पागलपन का..!!

-- उमराव सिंह राजपूत (Umrav Jan Sikar)