Friday 24 July 2015

गीता अध्याय २

गीता‎ ‎द्वितीय अध्याय

साङ्ख्ययोग

संजय उवाच -

तं तथा कृपयाविष्टमश्रु पूर्णाकुलेक्षणम्‌।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः॥१॥

संजय बोले- तब करुणा-ग्रस्त और आँसुओं से पूर्ण, व्याकुल दृष्टि वाले, शोकयुक्त अर्जुन से भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा॥1॥

श्रीभगवानुवाच -

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्‌।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यम्‌ कीर्तिकरमर्जुन॥२॥

श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! तुम्हें इस असमय में यह शोक किस प्रकार हो रहा है? क्योंकि न यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग देने वाला है और न यश देने वाला ही है॥2॥

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥३॥

हे पृथा-पुत्र! कायरता को मत प्राप्त हो, यह तुम्हें शोभा नहीं देती है। हे शत्रु-तापन! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर(युद्ध के लिए) खड़े हो जाओ॥3॥

अर्जुन उवाच -

कथं भीष्ममहं सङ्‍ख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन॥४॥

अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से पितामह भीष्म और गुरु द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूँगा? क्योंकि हे अरिसूदन! ये दोनों ही पूजनीय हैं॥4॥

गुरूनहत्वा हि महानुभावा-
ञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुंजीय
भोगान्‌ रुधिरप्रदिग्धान्‌॥५॥

इन महान गुरुजनों को मारने से इस लोक में, मैं भिक्षा का अन्न खाना अधिक कल्याणकर समझता हूँ क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी मैं उनके रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा॥5॥

न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो-
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम-
स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः॥६॥

हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना श्रेष्ठ है या न करना और यह भी नहीं जानते कि हम उन्हें जीतेंगे या वे हमको जीतेंगे। जिनको मारकर हम जीना नहीं चाहते, वे धृतराष्ट्र के पुत्र ही हमारे सम्मुख खड़े हैं॥6॥

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌॥७॥

कायरता रूप दोष से पराजित स्वभाव वाला और धर्म के विषय में मोहित चित्त, मैं आपसे पूछता हूँ कि जो मेरे लिए निश्चित और कल्याणकारक साधन हो, वह  बताइए। मैं आपका शिष्य हूँ और आपकी शरण में हूँ, अतः मुझे शिक्षा दीजिये॥7॥

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-
द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्‌।
अवाप्य भूमावसपत्रमृद्धं-
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्‌॥८॥

पृथ्वी का सब प्रकार से समृद्ध औरनिष्कण्टक राज्य पाकर या देवताओं का आधिपत्य पाकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो  इन्द्रियों को सुखाने वाले मेरे इस शोक को दूर कर सके॥8॥

संजय उवाच -

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।
न योत्स्य इतिगोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह॥९॥

संजय बोले- निद्रा को जीतने वाले शत्रु-तापन अर्जुन ने अंतर्यामी भगवान श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा। फिर हे गोविंद! 'मैं युद्ध नहीं करूँगा' ऐसा कहकर चुप हो गए॥9॥

तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत। सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदंतमिदं वचः॥१०॥

हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! अंतर्यामी भगवान श्रीकृष्ण दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन से हँसते हुए से यह बोले॥10॥

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः॥११॥

तुम शोक न करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करते हो और पण्डितों जैसी बात भी करते हो, परन्तु बुद्धिमान लोग जिनके प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए शोक नहीं करते हैं॥11॥

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्‌॥१२॥

न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तुम नहीं थे अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे॥12॥

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्ति र्धीरस्तत्र न मुह्यति॥१३॥

जैसे इस शरीर में जीवात्मा को  कुमार, युवा और वृद्धावस्था प्राप्त होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति भी होती है, इस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता(शोक नहीं करता)॥13॥

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्या- स्तांस्तितिक्षस्व भारत॥१४॥

हे कुंतीपुत्र! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिए हे भारत! तुम उनको सहन करो॥14॥

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥१५॥

क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य हो जाता है॥15॥

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्त- स्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः॥१६॥
असत्‌ वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत्‌ का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्त्व तत्त्व ज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है॥16॥

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्‌।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति॥१७॥

नाशरहित तो तुम उसको जानो, जिससे यह सम्पूर्ण दृश्य जगत्‌ व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है॥17॥

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत॥१८॥

इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गए हैं, इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तुम युद्ध करो॥18॥

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्‌।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥१९॥

जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है और जो इसको मरा हुआ मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी द्वारा मारा ही जाता है॥19॥

न जायते म्रियते वा कदाचि-
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो-
न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥२०॥

यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर न होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह मारा नहीं जाता॥20॥

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्‌।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्‌॥२१॥
हे पृथापुत्र अर्जुन! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसी को मारता या मरवाता है?॥21॥

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥२२॥

जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है॥22॥

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥२३॥

इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, आग इसको जला नहीं सकती, जल इसको गला नहीं सकता और वायु इसको सुखा नहीं सकती॥23॥

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥२४॥

यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और निःसंदेह अशोष्य है। यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर और सनातन है॥24॥

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥२५॥

यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है। इसलिए हे अर्जुन! इस आत्मा को इस प्रकार से जानकर तुम्हारे लिए शोक उचित नहीं है॥25॥

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्‌।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि॥२६॥

किन्तु यदि तुम इस आत्मा को सदा जन्मने वाला तथा सदा मरने वाला भी मानो, तो भी हे महाबाहो! तुम्हें इस प्रकार शोक नहीं करना चाहिए॥26॥

जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥२७॥

क्योंकि जन्मने(पैदा होने) वाले की मृत्यु निश्चित है और मरने वाले का जन्म भी निश्चित है। इसलिए इस अनिवार्य(अवश्यम्भावी) विषय में तुम शोक करने योग्य नहीं हो॥27॥

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥२८॥

हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं, फिर इस स्थिति में क्या शोक करना?॥28॥

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्‌॥२९॥

कोई एक(आत्मदर्शी) ही इस आत्मा को आश्चर्य की भाँति देखता है और वैसे ही कोई दूसरा(आत्मज्ञ) ही इसके तत्व का आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा अन्य कोई(अधिकारी) ही इसे आश्चर्य की भाँति सुनता है और कोई तो सुनकर भी इसे नहीं जानता॥29॥

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि॥३०॥

हे अर्जुन! सबके शरीर में स्थित यह आत्मा  सदा ही अवध्य (जिसका वध नहीं किया जा सके) है। इसलिए तुम्हें किसी भी प्राणी के लिए शोक नहीं करना चाहिए॥30॥

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते॥३१॥

और अपने धर्म को देखकर भी तुम भय करने योग्य नहीं हो क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर कोई दूसरा कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है॥31॥

यदृच्छया चोपपन्नां स्वर्गद्वारमपावृतम्‌।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्‌॥३२॥
हे पार्थ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार-रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय ही पाते हैं॥32॥

अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्‍ग्रामं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि॥३३॥

किन्तु यदि तुम इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करोगे तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगे॥33॥

अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्‌।
सम्भावितस्य चाकीर्ति- र्मरणादतिरिच्यते॥३४॥

और सब लोग तुम्हारी बहुत समय तक रहने वाली अकीर्ति की भी चर्चा करेंगे और प्रतिष्ठित व्यक्ति के लिए अकीर्ति मरण से भी बढ़कर है॥34॥

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्‌॥३५॥

और जिनकी दृष्टि में तुम बहुत सम्मानित हो, अब(उनके मत में) तुच्छ्ता को प्राप्त होगे, वे महारथी लोग तुम्हें भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे॥35॥

अवाच्यवादांश्च बहून्‌ वदिष्यन्ति तवाहिताः।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्‌॥३६॥

शत्रु-गण तुम्हारे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुम्हें बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे, उससे अधिक दुःखदायक और क्या होगा?॥36॥

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्‌।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः॥३७॥

यदि तुम युद्ध में मारे गए तो तुम स्वर्ग को प्राप्त करोगे अन्यथा युद्ध में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगोगे। इसलिए हे अर्जुन! तुम युद्ध का निश्चय करके खड़े हो जाओ॥37॥

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥३८॥

जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, युद्ध में लग जाओ, इस प्रकार युद्ध करने से तुम पाप को प्राप्त नहीं होगे॥38॥

एषा तेऽभिहिता साङ्‍ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु।
बुद्ध्‌या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि॥३९॥

हे पार्थ! तुम्हारे लिए यह बुद्धि ज्ञानयोग के विषय में कही गई और अब तुम इसको कर्मयोग के विषय में सुनो। जिस बुद्धि से युक्त होकर तुम कर्मों के बंधन को नष्ट कर सकोगे॥39॥

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्‌॥४०॥

इस कर्मयोग में आरंभ का नाश नहीं है और इसमें उलटा फलरूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस(कर्मयोग रूप) धर्म का थोड़ा-सा भी साधन(जन्म-मृत्यु रूपी) महान भय से रक्षा कर लेता है॥40॥

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्‌॥४१॥

हे अर्जुन! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है, किन्तु अस्थिर विचार वाले मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं॥41॥

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः॥४२॥ हे

अर्जुन! जो(अयथार्थ वेद के कहने वाले) अविवेकीजन इस प्रकार की(बनावटी) शोभायुक्त वाणी कहा करते हैं कि स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है,॥42॥

कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्‌।
क्रियाविश्लेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति॥४३॥

जिनके लिए स्वर्ग ही परम प्राप्य है, जो कि जन्मरूप कर्मफल देने वाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं में रूचि रखने वाले हैं,॥43॥

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्‌।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते॥४४॥

जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, और जिनका चित्त उस वाणी द्वारा हर लिया गया है, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चियात्मिका बुद्धि नहीं होती॥44॥

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्‌॥४५॥

हे अर्जुन! वेद तीनों गुणों(सत्त्व, रज और तम) के कार्य रूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं, इसलिए तुम उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वंद्वों से रहित, नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित योग (अप्राप्त की प्राप्ति का नाम 'योग' है।) क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम 'क्षेम' है।) को न चाहने वाले और आत्म-परायण बनो॥45॥

यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥४६॥

जिस प्रकार सब ओर से परिपूर्ण जलाशय से मनुष्य का प्यास भर जल का ही प्रयोजन होता है, उसी प्रकार ब्राह्मण(मुमुक्षु) का समस्त वेदों के केवल आवश्यक अंश में ही प्रयोजन रह जाता है॥46॥

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा
कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥४७॥

तुम्हारा अधिकार कर्म करने में ही है, उनके फलों में नहीं। तुम कर्मों के फल का कारण मत बनो और तुम्हारी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो॥47॥

योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥४८॥

हे धनंजय! योग में स्थित रहते हुए तुम आसक्ति को त्यागकर, सिद्धि और असिद्धि में समान रह कर कर्मों को करो, इस समता को ही योग कहते हैं॥48॥

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः॥४९॥

हे धनंजय! इस(समता-रूपी) बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी के हैं इसलिए तुम समबुद्धि का ही आश्रय लो क्योंकि आसक्ति पूर्वक कर्म करने वाले अत्यंत दीन हैं॥49॥

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्‌॥५०॥

(सम)बुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों से इसी लोक में मुक्त हो जाता है इसलिए तुम समत्व रूप योग के लिए प्रयत्न करो, यह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है(अर्थात् कर्म-बंधन से छूटने का उपाय है)॥50॥

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्‌॥५१॥
क्योंकि कर्म-बुद्धि से युक्त मनीषी(विचारक) भी कर्मों के फल को त्यागकर जन्म-रूपी बंधन से मुक्त होकर निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं॥51॥

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति। तदा
गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥५२॥

(इस प्रकार कर्म करते हुए) जिस काल में तुम्हारी बुद्धि मोहरूपी दलदल को भली-भाँति पार कर जाएगी, उस समय तुम सुने हुए और भविष्य में सुनने वाले  सभी भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जाओगे॥52॥

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि॥५३॥

भाँति-भाँति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तुम्हारी बुद्धि जब स्थिर होकर अचल समाधि में स्थित हो जाएगी तब तुम्हारी बुद्धि योग को प्राप्त हो जाएगी॥53॥

अर्जुन उवाच -

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्‌॥५४॥

अर्जुन बोले- हे केशव! समाधि में स्थित  स्थिर प्रज्ञा वाले पुरुष का क्या लक्षण है? वह स्थिर-बुद्धि वाला पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?॥54॥

श्रीभगवानुवाच -

प्रजहाति यदा कामान्‌ सर्वान्पार्थ मनोगतान्‌।
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥५५॥

श्री भगवान्‌ बोले- हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भलीभाँति त्याग देता है और मन से आत्म-स्वरुप का चिंतन करता हुआ उसी में संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है॥55॥

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥५६॥

दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिर-बुद्धि कहा जाता है॥56॥

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्- तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्‌।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥५७॥

जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ यदृछ्या(प्रारब्धवश) प्राप्त शुभ या अशुभ से न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है॥57॥

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्- तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥५८॥

जैसे कछुवा अपने अंगों को सब ओर से समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों से सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है॥58॥

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते॥५९॥

इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है॥59॥

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः॥६०॥

हे अर्जुन! (आसक्ति का नाश न होने के कारण) यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी ये इन्द्रियाँ बलात्‌ हर लेती है॥60॥

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥६१॥
इसलिए साधक उन सारी इन्द्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है॥61॥

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥६२॥

विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है॥62॥

क्रोधाद्‍भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥६३॥

क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति-भ्रंश हो जाता है, स्मृति-भ्रंश हो जाने से बुद्धि का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है॥63॥

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्‌।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥६४॥

अपने वश में किये हुए अन्तःकरण वाला साधक, नियंत्रित और राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ भी अन्तःकरण की निर्मलता को प्राप्त होता है॥64॥

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते॥६५॥

अन्तःकरण निर्मल होने पर इसके सभी दुःखों का नाश हो जाता है और उस प्रसन्न-चित्त वाले उस कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही स्थिर हो जाती है॥65॥

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिर- शान्तस्य कुतः सुखम्‌॥६६॥

योग-रहित पुरुष की निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस अयुक्त पुरुष में(आत्म-विषयक) भावना भी नहीं होती। भावनाहीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती और अशांत मनुष्य को सुख कहाँ?॥66॥

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥६७॥

क्योंकि विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों से संयुक्त होकर मन बुद्धि को वैसे ही हर लेता है जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु॥67॥

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्- तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥६८॥

इसलिए हे महाबाहो! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ, इन्द्रियों के विषयों में सब प्रकार से निग्रह की(रोकी) हुई हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है॥68॥

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥६९॥

आत्म-विषयक जो बुद्धि सम्पूर्ण प्राणियों के लिए रात्रि के समान(अज्ञात) है, उस आत्म-विषयक बुद्धि में जितेन्द्रिय पुरुष जागता है और जिस अनात्म-विषयक बुद्धि में सब प्राणी जागते हैं, उस मुनि के लिए वह रात्रि के समान है॥69॥
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं-
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्‌।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥७०॥

जैसे सब ओर से परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में (अनेक नदियों के जल) उसमें क्षोभ न उत्पन्न करते हुए समा जाते हैं, वैसे ही जिस पुरुष में सब भोग बिना किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए समा जाते हैं, वही पुरुष शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं॥70॥

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति॥७१॥

जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग कर, ममतारहित, अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वह शांति को प्राप्त होता है॥71॥

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥७२॥

हे अर्जुन! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर मनुष्य फिर कभी मोहित नहीं होता और अंतकाल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है॥72॥

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥

ॐ तत् सत् ! इस प्रकार ब्रह्मविद्या का योग करवाने वाले शास्त्र, श्रीमद्भगवद्गीता रूपी उपनिषत् में श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद रूपी सांख्य योग नाम वाला दूसरा अध्याय सम्पूर्ण हुआ॥

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