सोचे थे ख्वाब , जाना था उस ओर।
तुफानों से घिर कर आ गये किस ओर॥
भंवर में फंसे ऐसे कि दिखाई नहीं देता छोर।
कब सोचा था मैंने, यों फिसल जाएगी डोर॥
हालातों के दंश ने, राहों को इस तरह मोड़ा।
कि बरबाद हुए ऐसे, कहीं का नहीं छोड़ा॥
तूफान तो चला गया, डोर पतंग की काट के।
जीवन के इस मेले में, हम घर के रहे ना घाट के॥
हुए कटी पतंग की तरह, न राह रही न मंजिल।
बेरंग से इस जीवन में, तन्हाइयां हुई है शामिल॥
-- Umrav Jan Sikar
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