" किश्ती "
जिस शाख पर हम बैठे, वो शाख वहीं से टूट गई।
अपने ही हाथों दुनिया हमारी लुट गई।
तकदीर का अफसाना, ऐसा है ये अपना,
ऐसी राह चुनी थी हमने कि मंजिल ही पीछे छूट गई।
यकीन किया था उन पर, जो अपने करीब थे,
उन बेरहमों के कारण किस्मत ही हमसे रूठ गई।
पग-पग पर गिरे हम, ठोकरें खाई है इतनी,
संभलने से पहले ही रंगत जवानी की लुट गई।
जिंदगी के इस जुए में, जिन्दगी लगी है दांव पर,
होश आया तो दिल में कंपकंपी-सी छूट गई।
ऐ दिले-नादान! अब हम क्या करे?
जिस किश्ती में हम सवार है, वही किश्ती टूट गई।
-- Umrav Jan Sikar
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