"नशा या नाश" और "शौक या शोक"
इसे समझने की जरूरत है।
नशा नाश का पहला पायदान है
मन का काम है भटकना
और भटकाना नशे का काम है।
शादी, पार्टी, जश्न तक ही शौक सीमित है
शौक मन की इच्छा का नाम है
इच्छा मन का विकार है।
इच्छाएं कभी मरती नहीं,
जितना तृप्त करो उतनी ही प्यास बढ़ती है।
धीरे-धीरे शौक की सीमाएं टूटती है,
थकान मिटानी हो या मानसिक तनाव हो,
नशा अब दवा लगने लगता है।
और पता ही नहीं चलता
कि कब शौक आदत बन गया है,
आदत के साथ ही शुरु होता है नाश का क्रम।
आदमी आदत का गुलाम होता है
जब नसों में ज्यादा नशा भर जाता है
तो शरीर भी नशे का गुलाम बन जाता है
अब इन्हे नशा चाहिए
न मिले तो अकड़ना शुरु।
नाश का अन्तिम चरण है 'सर्वनाश'।
सब कुछ खत्म, कुछ नहीं बचता
धन का नाश,
तन का नाश,
अस्तित्व का नाश।
सर्वनाश का क्रम स्वत: ही चलता है
अब आदमी की कोई भूमिका नहीं रहती।
वह सोचता है, शोक से संतप्त होता है
मगर विवश है
कुछ कर नहीं पाता है
पूर्णत: नशे का गुलाम है।
शौक शोक में तब्दील हो गया,
नशा नाश की ओर अग्रसर हो गया।
शौक की सीमा होती है,
नशा नाश का प्रतीक है,
इसे समझने की जरूरत है।
-- Umrav Jan Sikar
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