Wednesday 23 December 2015

किश्ती

                      " किश्ती "

जिस शाख पर हम बैठे, वो शाख वहीं से टूट गई।
अपने ही हाथों दुनिया हमारी लुट गई।
तकदीर का अफसाना, ऐसा है ये अपना,
ऐसी राह चुनी थी हमने कि मंजिल ही पीछे छूट गई।
यकीन किया था उन पर, जो अपने करीब थे,
उन बेरहमों के कारण किस्मत ही हमसे रूठ गई।
पग-पग पर गिरे हम, ठोकरें खाई है इतनी,
संभलने से पहले ही रंगत जवानी की लुट गई।
जिंदगी के इस जुए में, जिन्दगी लगी है दांव पर,
होश आया तो दिल में कंपकंपी-सी छूट गई।
ऐ दिले-नादान! अब हम क्या करे?
जिस किश्ती में हम सवार है, वही किश्ती टूट गई।

-- Umrav Jan Sikar

कटी पतंग

सोचे थे ख्वाब , जाना था उस ओर।
तुफानों से घिर कर आ गये किस ओर॥
भंवर में फंसे ऐसे कि दिखाई नहीं देता छोर।
कब सोचा था मैंने, यों फिसल जाएगी डोर॥
हालातों के दंश ने, राहों को इस तरह मोड़ा।
कि बरबाद हुए ऐसे,  कहीं का नहीं छोड़ा॥
तूफान तो चला गया, डोर पतंग की काट के।
जीवन के इस मेले में,  हम घर के रहे ना घाट के॥
हुए कटी पतंग की तरह, न राह रही न मंजिल।
बेरंग से इस जीवन में,  तन्हाइयां हुई है शामिल॥

-- Umrav Jan Sikar

Sunday 20 December 2015

अन्धेरी रात

बरसों बीत गये इस इन्तजार में
कि ये अन्धेरी रात गुजर जाएगी।
लालिमा बिखेरती सुबह की किरण,
जीवन में नया संचार लाएगी।
बस यही आस लिए उदास मन को
सांत्वना देता रहा कि
पतझड़ के बाद ...
बसन्त की बहार आएगी।
वीरान हुए इस चमन में
फूल खिलेंगे फिर से,
सूनी सी इन आंखों में
सतरंगी रौनक आएगी।
क्यों थक चुका हूँ इतना कि
तन साथ नहीं देता मेरा,
लगता है ये काली रात
अब गुजर नहीं पायेगी।
क्यों उखड़ने लगी है सांसे मेरी,
ऐ मेरे दिल !
क्या डोरी इन सांसों की टूट जाएगी।
सो चुका था जमीर मेरा
बरसों बीत गये,
लगता है जैसे अब बारी मेरी आएगी।
गम है इतना कि जहां में ...
'कोई' मेरा हो न सका,
ये आरजू मेरे मन की
मन में ही रह जाएगी...!!

   ✒ Umrav Jan Sikar

Friday 4 December 2015

घातक निर्णय

                   " घातक निर्णय "

कई दिनों से मेरा एक दोस्त काफी उदास था,
उसके हाव-भाव और व्यवहार में कुछ बदलाव था।
मैंने उसे पुछा भी लेकिन उसने बताया नहीं,
निजी मामला समझ मैंने भी दबाब बनाया नहीं।
दो रोज बाद मुझसे बोला --
यार एक काम में मेरा थोड़ा सा हाथ बंटावो,
एक मेहमान के लिए किसी होटल में कमरा दिलावो।
मैंने एक परिचित की मदद से
स्टेशन के पास एक कमरा बुक कराया,
शाम हो रही थी इसलिये
दोस्त को वहीं छोड़ मैं वापस चला आया।
देर रात को मोबाइल की घण्टी ने मुझे जगाया,
फोन मेरे दोस्त के घर से आया।
उधर से जो बताया गया, सुनकर मैं भी घबराया,
गांव से एक लड़की भाग गई,
भगाने का काम मेरे दोस्त का बताया।
मुझे लगा कि मेहमान कोई और नहीं
'वो लड़की ही है' मैं मन ही मन बुदबुदाया,
मैं तुरंत उस होटल में आया।
दस्तक देकर दरवाजा खुलवाया
दरवाजा उसी लड़की ने खोला,
दोस्त को नशे में झूमता हुआ पाया।
यह तो कभी शराब पीता ही नहीं था,
आज कैसे पी ली?
बोली - बस यही कमी रह गई थी,
जो आज पूरी कर ली।
मैं उसके पास गया तो बगल में
एक तह किया कागज रखा हुआ था
मैंने उसे उठाकर पढ़ा तो कांप उठा,
दोनों का यह सुसाइड नोट लिखा हुआ था।
इसने शराब ही ली है या जहर वगैरह खाया है,
वह बोली - नहीं, केवल शराब पीकर ही आया है।
मैंने उस नोट को लहराकर कहा -
तुम जो करने जा रहे हो, इस बारे में कुछ सोचा है,
वह मायूस होकर बोली अब सोचने में क्या रखा है।
हम जीते जी मिल नहीं सकते,
और शादी कर नहीं सकते।
किसी किम्मत पर साथ नहीं छोड़ेंगे,
ऐसे नहीं तो फिर मर कर मिलेंगे।
मैंने पूछा यह तो पुख्ता है कि
तुम मर कर मिल लोगे,
अगर मिल भी गये तो,
तुम क्या प्यार कर सकोगे।
'मर कर मिल लोगे' यह तो तुमने सोच लिया,
पर हकीकत इससे जुदा है - मैंने तर्क दिया।
रिश्ते, नाते  और दोस्त, दुश्मन
ये सब शरीर के ही सम्बन्ध है,
देखना, सुनना और बोलना, चलना
ये भी इस शरीर के ही प्रबन्ध है।
जब आत्मा शरीर से निकल जाती है
तो वह कुछ भी देख नहीं पाती है,
न वह आवाज लगा सकती है,
न ही कोई आवाज सुन पाती है।
उनके पास देखने, सुनने, बोलने का
कोई साधन नहीं होता है,
शरीर के बिना आत्मा को
कुछ भी अनुभव नहीं होता है।
लिंग भेद भी शरीर का होता है
आत्मा का कोई लिंग नहीं होता,
न मादा होती है, न नर होता है।
अभी तुम आजादी का रोना रोते हो
फिर अपनी बेबसी पर रोना,
बहुत मंहगा पड़ेगा तुम्हे
इस अनमोल शरीर को खोना।
क्या तुम सच कह रहे हो?
वह बोली या मुझे डरा रहे हो।
मैं बोला - हां, सच्चाई तो यही है,
मौत के बाद अन्धकार के सिवा कुछ नहीं है
बोली क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आता है
मैंने बताया जो जज्बातों में बहता है
उसकी बुद्धि का ज्ञान पुंज खत्म हो जाता है।
उस स्थिति में जो फैसला लिया जाता है
वह बहुत ही घातक होता है
जिसका परिणाम काफी भयानक हो जाता है।
तुमने शायद खाना नहीं खाया है
चलो, पहले खाना खा लेते है,
फिर तुम्हे क्या करना है
इस पर विचार करते है।
हमने नीचे आकर खाना खाया
साथ में गपशप भी हो गई,
इस दौरान वह भी ,
काफी हद तक सामान्य हो गई।
फिर मैंने उसे समझाया -
जिससे तुम शादी कर सकती नहीं,
यहां तक कि मिल भी सकती नहीं।
उस प्यार का क्या फायदा,
तुम्हे उस प्यार को छोड़ देना चाहिए,
अपने सुखद भविष्य के लिए
जज्बातों में बहना छोड़ देना चाहिए।
वह बोली - मैं तो मर ही जाऊंगी
उनके बिना जी नहीं पाऊंगी,
जिसके लिए धड़कता है दिल मेरा
उस प्यार को मैं कैसे भूल पाऊंगी।
मैंने कहा - अपने-आप को संभालो
आंखों पर मत भ्रम का पर्दा डालो,
तुम हवा में उड़ना छोड़ कर
हकीकत के धरातल पर नजर डालो।
वरना भविष्य में अन्धेरा छा जाएगा,
बरबादी के सिवा कुछ हाथ नहीं आएगा।
बोली मैं क्या करूं, आप ही बताओ,
अभी ट्रेन पकड़ कर घर चली जाओ।
ऐसे भी तेरा यहां रहना अच्छा नहीं है,
मौत का साया अभी पूरी तरह से हटा नहीं है।
अभी तो यह नशे में है,
लेकिन जब इसे होश आएगा।
फिर वही हालात बनेगा,
खुदकुशी का दबाव बन जाएगा।
मेरा कहना तुम सच मानो,
शरीर के महत्व को पहचानो।
बड़ा घृणित काम है इसे नष्ट करना,
प्रकृति का उपहार है, इसे सहेज कर रखना।
दुनिया में ऐसे कई लोग है जिनका,
सबकुछ लुट गया, भिखारी तक बन गये,
मगर फिर भी मरे नहीं,
जिन्दगी की खातिर हर दर्द सह गये।
मैं चली जाऊंगी पर इसका क्या होगा
उंगली से दोस्त की तरफ संकेत किया,
इसे संभाल लूंगा, मैं यहीं पर हूँ
इस तरह उसे आश्वस्त किया।
तेरे घर वाले काफी परेशान है
किसी बूथ पर जाकर उसे फोन करो,
फिर पहली गाड़ी पकड़ कर,
अपने घर प्रस्थान करो।
दुबारा कभी इससे मिलना मत
हो सके जितनी दूरी बनाओ,
घर वाले रिश्ता तय करे जिसके साथ
अपना प्यार समझ कर अपनाओ।
सुबह जब दोस्त को होश आया,
तो अपने-आपको अकेला पाया।
जब होटल वालों ने मेरे बारे में बताया,
तो चलकर सीधा मेरे पास आया।
उसे घर क्यों भेजा, इस बात पर
उसने काफी विवाद किया,
इन्सान मरने के लिए नहीं होता
मैंने भी उसका विरोध किया।
तुझे मरना था तो मर जाता
क्यों मरने के लिए उसे राजी किया,
इस मुद्दे पर हमारी दोस्ती टूटी
फिर हमने वह शहर भी छोड़ दिया।
समय के साथ-साथ मेरे स्मृति पटल पर
यह घटना धुंधली पड़ती गई,
मगर आज एक अप्रत्याशित घटना घटी
जो अतीत की घटना को जीवन्त कर गई।
बस में काफी भीड़ थी
मैं गैलरी में खड़ा रहने को मजबूर था,
रस्ते में कुछ सवारी उतरी, तब सीट मिली,
मेरा गांव अभी बहुत दूर था।
पहली पंक्ति की सीट से एक बच्ची आई
मेरे हाथ में एक कागज थमाया,
मैंने खोल कर देखा तो
पत्र में यह लिखा हुआ पाया।
"बहुत बहुत शुक्रिया
जो आपने मेरी जान बचाई,
उस दिन आपने ही मुझे
जीने की राह दिखाई।"
सौभाग्य से आज मिल ही गये
मेरा प्रणाम स्वीकार कीजिए,
पत्र लाने वाली मेरी बच्ची है
इसे अपना आशिर्वाद दीजिए।
मैंने अपना हाथ उसके सिर पर रखा
प्यार से बच्ची को दुलारने लगा,
मैं आश्चर्य से कभी खत को
तो कभी बच्ची को निहारने लगा।

   --  ✒ Umrav Jan Sikar

Sunday 15 November 2015

अजनबी

दो-चार कदम साथ क्या चल लिए,
वो अपना हमसफर ही समझ बैठे।
मेरी मन्द-मन्द मुस्कानों पर,
खुद को निछावर कर बैठे।
नियत दूरी के बाद होना था अलग
पता था, फिर भी दिल में बसा बैठे।
मेरी खनकती सुरीली आवाज को
कर्णप्रिय संगीत वो बना बैठे।
तिराहे पर आकर राह मेरी मुड़ गई
वो आँखों में आंसू छलका बैठे।
लड़खड़ाए कदम और गिर पड़े
इस कदर अपना होश गंवा बैठे।
"तुम ही मेरी मंजिल, हां तुम ही.."
बेहोशी में कुछ यों बुदबुदा बैठे।
खुद तड़पा और मुझको तड़पाया
अजनबी क्यों तुम दिल लगा बैठे..!

   -- Umrav Jan Sikar

Monday 9 November 2015

इस बार दिवाली पर आ जाओ

इस बार दीवाली पर आ जाओ,
तुम आओ तो कुछ सुकून मिले।
निगाहें तरस रही है बरसों से,
तुम आओ तो इन्हे ठण्डक मिले।

कभी गमों से राहत मिली नहीं
अब जीने की चाहत रही नहीं,
बस रुखसत होने से पहले
इक बार तो तुम्हारी झलक मिले।

खिलते फूलों की खुशबू ने,
फिर से मुझे झकझोर दिया,
है इन्तजार तुम्हारे आने का
आओ तो जीवन में महक घुले।

तुम इस बार मिटा दो ये दूरी
कुछ समझो मेरी भी मजबूरी,
निराशाओं के काले साये में
तुम आओ तो आशा का दीप जले।

-- Umrav Jan Sikar

Monday 7 September 2015

दूरियां

आजकल न जाने वो मुझसे
क्यों दूरियां बनाने लगे है,
मेरे आग्रहों पर भी अब वो
असहज होकर झल्लाने लगे है।

मुझसे दो बात करे इतना वक्त
उनके पास अब है कहां ?
कुछ मेरी भी सुने पर अब
वो सुनने को है तैयार कहां ?

उनकी हर बात में अब जिक्र
किसी और का होने लगा है,
उनके दिल में किसी नई
प्रतिमा का चित्रण होने लगा है।

चमक-दमक के आकर्षण में
शायद राही का इरादा बदल गया,
लगता है जैसे मन्दिर का पुजारी
या पुजारी का खुदा बदल गया।

-- Umrav Jan Sikar

Saturday 5 September 2015

काश मेरे नर्म अहसासों से

काश मेरे नर्म अहसासों से,
तेरे मन का दर्प पिघल जाता।
बंधे थे इक अदृश्य डोरी से,
वो रिश्ता तो आखिर बच जाता।

पतंगे की तरह जलकर मरा, 
दीपक सी लौ कर पाता।
रुखसत होना ही था दुनिया से,
तेरे लिए तो कुछ कर पाता।

बरबाद तुमने ऐसे ही किया,
मैं खुद ही तबाह हो जाता।
स्वार्थों की बलि चढ़ाया मुझे,
तेरे लिए मैं खुद आहुत हो जाता।

गर मेरे दिल की सिसकियों से,
हृदय तेरा द्रवित हो जाता।
उम्र भर बेचैन रहा पर
अन्तिम नींद तो चैन की सो पाता।

-- Umrav Jan Sikar

Monday 24 August 2015

जिन्दगी की राहों में

         " जिन्दगी की राहों में "

जिन्दगी की राहों में तरह-तरह के झमेले है
भीड़ है ख्वाहिशों की और हाथ में खाली थैले है।

एक मुसीबत मिटती नहीं, चार आफत और आन पड़े,
जीवन की गाड़ी को उलझनें जमकर पीछे धकेले है।

हर मोड़ पर यहां धूर्त बैठे है, पहन कर चोला शरीफों का,
सांपों को क्या दोष देना, यहां आदमी भी बहुत विषैले है।

मतलब वालों ने नहीं देखी, रिश्तों की नाजुकता को,
रिश्तों की आड़ में कइयों ने, खेल बेईमानी के खेले है।

मीठी वाणी बोलने वाले, पीठ पीछे है जहर उगलते,
सुख में साथी बहुत यहां पर, दुख में सिर्फ अकेले है।

कीमत वफा की क्या होती है, देखा बहुत करीब से,
भीतर तक कांप गया, ऐसे-ऐसे दांव अपनों ने खेले है।

-- Umrav Jan Sikar 

Saturday 22 August 2015

एक अफवाह से तबाह

            " एक अफवाह से तबाह "

वो किसी को बीच सफर में छोड़ कर
जा रहे है दिलों का बन्धन तोड़ कर
चले है किसी की राह को विपरीत मोड़ कर।

टूट रहा है कोई, इस बात का उन्हे गम नहीं
झर रहे है आँसू किसी के, पर उनकी आँखें नम नहीं
बिखर रहे है सपने, पर उनके सपनों में अब हम नहीं।

छोटी-छोटी बातों पर अक्सर झगड़ने लगे
वाणी में नफरत का जहर उगलने लगे
कड़वाहट से रिश्तों के धागे चटकने लगे।

उनके चेहरे पर कठोरता उभर गई
धीरे-धीरे बातों में शालीनता मर गई
सौम्यता की प्रतिमूर्ति प्रचण्डता में बदल गई ।

एक अफवाह ने कैसा कमाल किया
पूरी हकीकत पर ही पर्दा डाल दिया
किसी को निहाल, तो किसी को बेहाल किया।

-- Umrav Jan Sikar

Friday 21 August 2015

उसी बेवफा ने मेरे दिल का हाल पूछा है

"उसी बेवफा ने मेरे दिल का हाल पूछा है।"

मेरे मन में फिर आज, ये सवाल उलझा है।
कभी भूलकर किया न याद,
सुनी ना दिल की फरियाद ,
जिनसे हुए हम बरबाद,
उसी बेवफा को मेरा, ख्याल सुझा है।

लगे जो बदनामी के दाग,
सीने में दहलाई जिसने आग,
दिल जला सालों-साल,
मुश्किल से वो शोला, फिलहाल बुझा है।

थामकर रकीबों का हाथ,
धोखा किया मेरे साथ,
आज हुई जो मुलाकात,
उसी बेवफा ने मेरे, दिल का हाल पूछा है।

-- Umrav Jan Sikar

बदले हुए हालात

कुछ दिन दूर क्या चले गये
वो हमसे दूरियां ही बढ़ाने लगे,
हमने जाने की वजह भी बताई
मगर वो मजबूरियाँ गिनाने लगे।

दोस्ती का, वफा का वास्ता देकर
हम फिर से उन्हे मनाने लगे,
लेकिन वो माने नहीं, मजबूरी का
बहाना बनाकर जाने लगे।

अचानक बदल चुके हालात का
दर्द सभी से छुपाने लगे,
टूटे तारे की ज्यों आशंकाओं के
अन्धेरे में गोता खाने लगे।

दोस्तों को खबर लगी तो
वे भी व्यंग्य के तीर चलाने लगे,
ईर्ष्या रखने वाले लोग
आज खुश नजर आने लगे।

-- Umrav Jan Sikar

Thursday 13 August 2015

नशा या नाश

"नशा या नाश" और "शौक या शोक"
इसे समझने की जरूरत है।
नशा नाश का पहला पायदान है
मन का काम है भटकना
और भटकाना नशे का काम है।
शादी, पार्टी, जश्न तक ही शौक सीमित है
शौक मन की इच्छा का नाम है
इच्छा मन का विकार है।
इच्छाएं कभी मरती नहीं,
जितना तृप्त करो उतनी ही प्यास बढ़ती है।
धीरे-धीरे शौक की सीमाएं टूटती है,
थकान मिटानी हो या मानसिक तनाव हो,
नशा अब दवा लगने लगता है।
और पता ही नहीं चलता
कि कब शौक आदत बन गया है,
आदत के साथ ही शुरु होता है नाश का क्रम।
आदमी आदत का गुलाम होता है
जब नसों में ज्यादा नशा भर जाता है
तो शरीर भी नशे का गुलाम बन जाता है
अब इन्हे नशा चाहिए
न मिले तो अकड़ना शुरु।
नाश का अन्तिम चरण है 'सर्वनाश'।
सब कुछ खत्म, कुछ नहीं बचता
धन का नाश,
तन का नाश,
अस्तित्व का नाश।
सर्वनाश का क्रम स्वत: ही चलता है
अब आदमी की कोई भूमिका नहीं रहती।
वह सोचता है, शोक से संतप्त होता है
मगर विवश है
कुछ कर नहीं पाता है
पूर्णत: नशे का गुलाम है।
शौक शोक में तब्दील हो गया,
नशा नाश की ओर अग्रसर हो गया।
शौक की सीमा होती है,
नशा नाश का प्रतीक है,
इसे समझने की जरूरत है।

-- Umrav Jan Sikar

Wednesday 12 August 2015

गंतव्य

'गंतव्य'

यूं तो हरेक की तमन्ना होती है, नई बुलन्दियां छुने में,
मगर हर कोई सफल नहीं होता, अपना गंतव्य पाने में।
कोई राह से जाता है भटक कि राह नजर नहीं आती,
कोई जंजाल में जाता है अटक कि मंजिल दिखाई नहीं देती।
           मगर चले थे तब मन में जोश भी था,
           गंतव्य पाने का पूरा होश भी था।
लेकिन वक्त के थपेड़ों में यह सब बह गया,
जीवन के उतार-चढ़ाव में ही मन उलझ कर रह गया।
विचलित वे भी हुए मगर निराशा में भी आशा का संचार रखा,
जोश उनका भी टूटा लेकिन अपना हौसला बरकरार रखा।
कल वे मंजिल से कुछ दूर थे, आज उनके पास है,
और कल उसे पा ही लेंगे, यह उनका विश्वास है।
         क्योंकि उनके इरादों में अटलता है,
         और उनके हौसलों में दृढ़ता है।
कहना है उनका कि केवल सोचने से ही कुछ हो नहीं पाता,
क्योंकि सोते हुए शेर के मुंह में हिरण कभी चलकर नहीं आता।

-- Umrav Jan Sikar

जालिम

जालिम

तेरी मुस्कान से जालिम, धोखे खाए है हमने।
अपने आँसुओं के मोती, खूब लुटाए है हमने।

दोस्ताने रवैये से अहसास दिलाया अपनों-सा,
फिर कैसे-कैसे जालिम, गुल खिलाए है तुमने।

मिठास घोलती बातों से छोड़े हंसी के फुहारे,
शिकारी की मानिंद नजरे-तीर चलाए है तुमने।

दर-दर भटके हम, डगर पकड़ी मयखाने की,
बेहयाई के तेवर जबसे दिखाए है तुमने।

भूल कर भी हमने दिल ना दुखाया जिनका,
उसी हरजाई से गहरे जख्म खाए है हमने।

 -- Umrav Jan Sikar

" मेरा स्वर्ग "

मेरा स्वर्ग

साधु-संत वैरागी होकर,
युक्ति करे आत्म-कल्याण की।
जिन्हे चाहत होती है स्वर्ग की,
वे माला जपे भगवान की।

मेरे साँसों की आवाज...
उच्चारे आपका नाम,
मेरे मन-मन्दिर में भी आप है।
मुझे चाहत नहीं उस स्वर्ग की
मेरा स्वर्ग तो बस आप है !!

-- Umrav Jan Sikar

Tuesday 11 August 2015

"तूफान "

"तुफान"

उनकी बेरुखी पर हम करते रहे गिला।
उनकी तरफ से हमें, सही जवाब ना मिला॥

आंधियों ने किया जब,  तुफां आने का इशारा।
हमें अपने हाल पर छोड़ा, खुद कर गये किनारा॥

तुफानों के वेग में,  हमसे किश्ती न संभली।
बह गये बहाव में, हमारी दिशाएं भी बदली॥

किसी ने बताया कि उनके वहां महफिलें सजी।
मेरी बरबादी पर हंसे, खूब तालियां बजी॥

-- Umrav Jan Sikar

"इन्तजार आज भी है"

"इन्तजार आज भी है"

किसी के लिए मेरे दिल में तड़प आज भी है।
उन गुजरे हुए लम्हों की कसक आज भी है।

वक्त के साथ वो मेरी जिन्दगी से दूर हुए,
उनसे मिलने की चाहत मन में आज भी है।

खामोश सी, सवाल पूछती सी वे आँखें,
वो मासूम सा चेहरा मेरी आँखों में आज भी है।

हंसते, खेलते और कभी बूझते पहेलियाँ,
मेरे कानों में उनकी आवाज आज भी है।

कई वर्षों तक खेले थे हम साथ-साथ,
उन लम्हों की धुंधली सी याद आज भी है।

कितना बदल गया होगा वो बचपन का चेहरा,
जिनके लिए मेरे दिल में जगह आज भी है। है

कहां ? कैसा है वो ? मालूम नहीं !
मगर उनका मुझे इन्तजार आज भी है।

-- Umrav Jan Sikar

Sunday 2 August 2015

हम पंछी थे एक डाल के

"हम पंछी थे एक डाल के "

हम पंछी थे एक डाल के.
हवा चली और छूट गए 
मेरे सपने टूट गए ........

अपना मुझे बताने वाले ,
हँस-हंसकर अपनाने वाले !
यादों की खुशबू-सा बनकर,
प्राणों में बस जाने वाले !
जीवन के किस पथ पर
जाने- मुझसे,मुझको लूट गए  ! 
मेरे सपने टूट गए .....

रोज समय की सही समीक्षा ,
मगर प्राण में पली प्रतीक्षा !
संघर्षों  के शूल संजोये ,
बार - बार दी अग्नि परिक्षा !
हारा सच्चा प्यार हमारा ,
जीत हजारों झूठ गए !
मेरे सपने टूट गए .....

आज अकेलापन खलता है ,
पल-पल मन-आँगन जलता है !
आशाओं का सूरज उगता ,
उगता नही ,सिर्फ ढलता है !
शेष रह गये  गीत अभागे ,
जो अधरों से फूट गए !
मेरे सपने टूट गए ....

Saturday 25 July 2015

गीता अध्याय ३

गीता‎ ‎तृतीय अध्याय

कर्मयोग

अर्जुन उवाच -

ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥३-१॥

अर्जुन बोले- हे जनार्दन! यदि आप कर्म की अपेक्षा ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं तो फिर हे केशव! मुझे (इस युद्धरुपी) भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?॥1॥

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥३-२॥

आप मिले - जुले हुए वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित सा कर रहे हैं इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ॥2॥

श्रीभगवानुवाच -

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥३-३॥

श्रीभगवान बोले- हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गई है। उनमें से सांख्य योगियों की निष्ठा तो ज्ञान योग से और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से होती है॥3॥

न कर्मणामनारम्भान् नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥३-४॥

मनुष्य न तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता (जिस अवस्था को प्राप्त हुए पुरुष के कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् फल उत्पन्न नहीं कर सकते, उस अवस्था का नाम 'निष्कर्मता' है।) को (या योगनिष्ठा) को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि (या सांख्यनिष्ठा) को ही प्राप्त होता है॥4॥

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥३-५॥

निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति से उत्पन्न गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य होता है॥5॥

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥३-६॥

जो मनुष्य कर्मेन्द्रियों को हठपूर्वक रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह असत्य आचरण वाला कहा जाता है॥7॥

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥३-७॥

किन्तु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वह विशिष्ट है॥7॥

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः॥३-८॥

तुम शास्त्र-विहित कर्मों को करो क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना ही श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तो तुम्हारा शरीर-निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा॥8॥

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर॥३-९॥

यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मुनष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे अर्जुन! तुम आसक्ति-रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही कर्म करो॥9॥
[यज्ञ - त्याग और ईश-आराधना से भावित होकर किये गए शास्त्र-सम्मत कर्म]

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥३-१०॥

प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो॥10॥

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥३-११॥

तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं की आराधना करो और वे देवता तुम लोगों का पोषण करें। इस प्रकार एक-दूसरे को संतुष्ट करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे॥11॥

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः॥३-१२॥

'यज्ञ द्वारा पूजित हुए देवता तुम लोगों को, निश्चित रूप से इच्छित भोग देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं द्वारा दिए हुए भोगों को जो पुरुष उनको अर्पण किये बिना स्वयं भोगता है, वह चोर ही है॥12॥

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥३-१३॥

यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो लोग केवल अपने लिए अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं ॥13॥

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥३-१४॥

सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है, वर्षा यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है ॥14॥

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥३-१५॥

कर्मसमुदाय को तुम वेद से और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जानो। इसलिए सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है ॥15॥

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥३-१६॥

हे पार्थ! जो पुरुष इस प्रकार परम्परा से प्रचलित सृष्टिचक्र के अनुकूल कार्य नहीं करता, वह इन्द्रियों द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है॥16॥

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥३-१७॥

परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट है, उसके लिए कोई भी कर्तव्य नहीं है॥17॥

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः॥३-१८॥

उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही। समस्त प्राणियों से भी उसका बिलकुल भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता॥18॥

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः॥३-१९॥

इसलिए तुम निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्य-कर्म को भलीभाँति करो क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है॥19॥

कर्मणैव हि संसिद्धिमा- स्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि॥३-२०॥

जनक आदि भी आसक्ति रहित कर्म द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे, इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तुम्हें कर्म करना ही उचित है॥20॥

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्- तत्त देवेतरो जनः। स
यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥३-२१॥

श्रेष्ठ पुरुष जैसा - जैसा आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है ॥21॥

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥३-२२॥

हे अर्जुन! मेरा इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ॥22॥

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः। मम
वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥३-२३॥

क्योंकि हे पार्थ! यदि मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाए क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं॥23॥

उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
संकरस्य च कर्ता स्यामु- पहन्यामिमाः प्रजाः॥३-२४॥

इसलिए यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाएँ और मैं संकरता का करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ॥24॥

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्त- श्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्॥३-२५॥

हे भारत! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे॥25॥

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्॥३-२६॥

ज्ञानी पुरुष शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि को भ्रमित न करे, किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भली-भाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाए॥27॥

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥३-२७॥

सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, तो भी अहंकार से मोहित अन्तःकरण वाला अज्ञानी 'मैं कर्ता हूँ', ऐसा मानता है॥27॥

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते॥३-२८॥

परन्तु हे महाबाहो! गुण विभाग और कर्म विभाग के तत्व को जानने वाला ज्ञान योगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता। ॥28॥

प्रकृतेर्गुणसंमूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्- कृत्स्नविन्न विचालयेत्॥३-२९॥

प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धियों को ज्ञानी विचलित न करे॥29॥

मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः॥३-३०॥

मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर (तुम) युद्ध करो॥30॥

ये मे मतमिदं नित्यम- नुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः॥३-३१॥

जो कोई मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धायुक्त होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं॥31॥

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः॥३-३२॥

परन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खों को तुम सभी ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझो॥32॥

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि। प्रकृतिं
यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति॥३-३३॥

सभी प्राणी और ज्ञानी भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करते हैं और प्रकृति को ही प्राप्त होते हैं फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा॥33॥

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥३-३४॥

प्रत्येक इन्द्रिय और उसके विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान्‌ शत्रु हैं॥34॥

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३-३५॥

अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है॥35॥

अर्जुन उवाच -

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः॥३-३६॥

अर्जुन बोले- हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात्‌ लगाए हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है॥36॥॥

श्रीभगवानुवाच -

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्॥३-३७॥

श्री भगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है। इसको ही तू इस विषय में वैरी जान॥37॥

धूमेनाव्रियते वह्नि- र्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्- तथा तेनेदमावृतम्॥३-३८॥

जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढँका जाता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढँका रहता है, वैसे ही उस काम द्वारा यह ज्ञान ढँका रहता है॥38॥

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च॥३-३९॥

और हे अर्जुन! ज्ञानियों के नित्य वैरी  इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले काम द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढँका हुआ है॥39॥

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्॥३-४०॥

इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि- ये सब इसके वासस्थान कहे जाते हैं। यह काम इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है। ॥40॥

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥३-४१॥

इसलिए हे अर्जुन! तुम पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डालो॥41॥

इन्द्रियाणि पराण्याहु- रिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः॥३-४२॥

इन्द्रियाँ स्थूल शरीर से श्रेष्ठ हैं, इन इन्द्रियों से श्रेष्ठ मन है, मन से भी श्रेष्ठ बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त श्रेष्ठ है, वह आत्मा है॥42॥

एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥३-४३॥

इस प्रकार बुद्धि से श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो! तुम इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डालो॥43॥

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

ॐ तत् सत् ! इस प्रकार ब्रह्मविद्या का योग करवाने वाले शास्त्र, श्रीमद्भगवद्गीता रूपी उपनिषत् में श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद रूपी कर्मयोग नाम वाला तृतीय अध्याय सम्पूर्ण हुआ॥